जन्म
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 के शुभ दिन महाराणा सांगा के पुत्र उदयसिंह एवं महारानी जयवंता बाई के यहाँ राजसमंद जिले में स्थित कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ । हालांकि इतिहासकारों में जन्म स्थान को लेकर मतभेद है, इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप सिंह का जन्म मेवाड़ के कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ, जबकि इतिहासकार विजय नाहर के मतानुसार बालक प्रताप का जन्म अपने नाना सोनगरा अखैराज के राजमहलों में हुआ था । महाराणा प्रताप को बचपन में “ कीका “ नाम से बुलाया जाता था ।
28 फरवरी 1572 को पिता उदयसिंह की मृत्यु होने से पूर्व ही उन्होंने अपनी सबसे छोटी रानी धीरबाई ( राणी भटियाणी ) के पुत्र जगमाल सिंह को मेवाड़ का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, जबकि जेष्ठ पुत्र होने के कारण प्रताप सिंह स्वाभाविक रूप से उत्तराधिकारी था । जगमाल सिंह विलासी प्रवर्ति का अयोग्य राजकुमार था इसलिए राज्य के अधिकतर सामंत जगमाल सिंह के बजाय प्रताप सिंह को महाराणा की गद्दी के लिए योग्य उम्मीदवार मानते थे ।
इधर जगमाल सिंह के हाथ में सत्ता आते ही उसके भोग विलास और जनता पर अत्याचार बढ़ने लगे । प्रताप सिंह ने भी छोटे भाई को समझने की कोशिश की परंतु सत्ता के अंधे जगमाल सिंह ने इसे अनदेखा कर दिया । जब जगमाल सिंह की अयोग्यता और अत्याचार हद से बढ़ने लगे तब विवश होकर मेवाड़ के समस्त सरदार एकत्र हुए और प्रताप सिंह को राजगद्दी पर आसीन करवाया । प्रताप सिंह का प्रथम राजतिलक 1 मार्च 1573 के दिन उदयपुर के नजदीक गोगुन्दा नामक गाँव में हुआ, और इसी दिन से प्रताप सिंह, महाराणा प्रताप नाम से जाना जाने लगा । महाराणा प्रताप का शारीरिक सौष्ठव ही उनके दुश्मनों के दिलों में भय पैदा करने में सक्षम था, महाराणा प्रताप साढ़े सात फिट लंबे थे और 110 किलो वजनी थे, युद्ध में जाते समय उनके साथ 80 किलोग्राम का भाला, 208 किलोग्राम की दो तलवारें और 72 किलोग्राम का लोहे का कवच होता था ।
महाराणा प्रताप का रीति रिवाजों के अनुसार द्वितीय राजतिलक कुम्भलगढ़ दुर्ग में किया गया । इधर प्रताप सिंह के राजगद्दी हथियाने के विरोध स्वरूप जगमाल सिंह ने अकबर से मित्रता गांठ ली ।
महाराणा प्रताप के राज्य की राजधानी उदयपुर थी । उन्होंने सन 1568 से 1597 तक शासन किया । उदयपुर पर विदेशी आक्रमणकारियों के संकट को देखते हुए और सामन्तों की सलाह मानकर महाराणा प्रताप ने उदयपुर छोड़कर कुम्भलगढ़ और गोगुंदा के पहाड़ी इलाके को अपना केन्द्र बनाया ।
महाराणा प्रताप ने अपने जीवनकाल में कुल 16 शादियाँ की थी, जिनसे उनके 17 पुत्र और 5 पुत्रियाँ थी ।
1568 में मुगल सेना द्वारा चित्तौड़गढ़ किले की विकट घेराबंदी के कारण मेवाड़ की उपजाऊ पूर्वी बेल्ट अकबर के नियंत्रण में आ गई । हालाँकि जंगल और पहाड़ी इलाका अभी भी महाराणा के कब्जे में थे । मेवाड़ पर अकबर की नजर इसलिए भी थी क्योंकि वह मेवाड़ से होते हुए के गुजरात के लिए एक स्थिर तलाश कर रहा था ।
महाराणा प्रताप के शासनकाल के समय तक लगभग पूरे उत्तर भारत में मुगल बादशाह अकबर का साम्राज्य, जिसमें अकबर लगातार बढ़ोतरी कर रहा था । मेवाड़ साम्राज्य अकबर के साम्राज्य विस्तार की राह में रोड़ा बना हुआ था । इसके लिए अकबर ने महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करने के लिए चार बार प्रताव भेजे ( सितंबर 1572 में जलाल खाँ, मार्च 1573 में मानसिंह, सितंबर 1573 में भगवानदास, दिसंबर 1573 में टोडरमल ) । परंतु हर बार निराश हाथ लगी, महाराणा प्रताप ने मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार करने से लड़ते हुए मरना श्रेष्ठ माना । अकबर ने महाराण को व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत होने का संदेशा भिजवाया परंतु महाराणा ने इनकार कर दिया, तब युद्ध से ही मेवाड जीतना अकबर के लिए जरूरी हो गया था । जिसके परिणाम स्वरूप 18 जून 1576 को हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ ।
18 जून 1576 को मुगल बादशाह के साम्राज्य विस्तार की नीति के फलस्वरूप हल्दीघाटी नामक दर्रे के नजदीक मेवाड़ की सेना ( जिसका सेनापति महाराणा प्रताप था ) और मुगलिया साम्राज्य की सेना ( मानसिंह और आसफ खान ) के बीच भीषण युद्ध हुआ । मेवाड़ की ओर से भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे, जिन्होंने इस युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाया । इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार हकीम खाँ सूरी थे ।
हल्दीघाटी युद्ध में मेवाड़ की सेना में 20 हजार और मुगल सेना में 50 हजार सैनिक थे, फिर भी मेवाड़ के योद्धाओं ने मुगलों को नाकों चने चबवाये । महाराणा प्रताप ने इस युद्ध में अपनी युद्धकला और वीरता का परचम लहराया । जिस ओर उनका घोड़ा चेतक मुँह घुमा लेता उस तरफ दुश्मनों की लाशों के ढेर लग जाते । दुश्मन सेना के लिए महाराणा और चेतक यमराज और उसके भैसे की तरह दिखाई दे रहा था । इस पूरे युद्ध में मेवाड़ की सेना मुगलों पर भारी पड़ रही थी और उनकी रणनीति सफल हो रही थी । महाराणा ने हाथी पर सवार मुगलों के सेनापति मान सिंह पर चेतक से हमला किया । मानसिंह ने हाथी के ऊपर बने हौदे में छुपकर जान बचाई । इस हमले में चेतक को भी गहरी चोटें आई, चेतक युद्ध में महाराणा का अहम साथी था । यह देखकर मुगल सेना युद्ध छोड़कर केवल महाराणा प्रताप को पकड़ने पर आमाद दिखने लगी, तब बींदा के झाला मान ने महाराणा प्रताप का मुकुट स्वयं धारण कर अपने प्राणों का बलिदान दिया और महाराणा प्रताप को युद्धक्षेत्र से निकलकर उनके जीवन की रक्षा की । युद्धक्षेत्र से निकलते समय मुगल सेना ने महाराणा का पीछा किया और एक विशाल नाले को पार करने के पश्चात स्वामिभक्त चेतक की मृत्यु हो गई । इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध अनिर्णित रहा । अकबर ने अपनी विशाल सेना महाराणा प्रताप को जिंदा या मुर्दा लाने के उद्देश्य से भेजी थी, जिसमें वो नाकाम रहा । वहीं महाराणा प्रताप को भी मेवाड़, चित्तौड़, गोगुन्दा, कुम्भलगढ़, उदयपुर आदि इलाके छोड़ने पड़े ।
इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनी ने किया था ।
इस युद्ध के पश्चात महाराणा ने जंगलों में शरण ली और धीरे धीरे अपनी शक्ति बढ़ाने लगे । इस मुसीबत के वक्त पर उनके मित्र और विश्वासपात्र सलाहकार भामाशाह द्वारा महाराणा को अपना सम्पूर्ण धन अर्पित कर दिया गया ।
वह धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला।
उस दानवीर की यश गाथा को, मेट सका क्या काल भला॥
इस सहयोग से महाराणा में नये उत्साह का संचार हुआ । अगले तीन वर्षों में महाराणा ने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगलों से एक एक कर अधिकांश इलाके छीन लिये ।
दिवेर का युद्ध ( मेवाड़ के मैराथन )
महाराणा प्रताप ने धीरे धीरे अपनी शक्ति अर्जित की और अक्टूबर 1582 में दिवेर और छापली के दर्रो के मध्य हुए दिवेर का युद्ध में मुगल सेना को वापस लौटने पर मजबूर कर दिया । यह इतिहास का एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में महाराणा प्रताप को अपने खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई । इस युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप व मुगल सल्तनत के बीच एक लम्बा संघर्ष चला, इसलिए कर्नल जेम्स टॉड ने इस युद्ध को " मेवाड़ का मैराथन " कहा था |
दिवेर का युद्ध |
दिवेर के युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे, उधर अकबर भी अपने साम्राज्य में हो रहे विद्रोहों को दबाने में उलझ गया परिणामस्वरूप मेवाड़ में मुगल साम्राज्य का शिकंजा छूटने लगा । इसका लाभ उठाकर महाराणा प्रताप ने 1585 तक लगभग सम्पूर्ण मेवाड़ पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । इस लंबे संघर्ष के पश्चात भी मेवाड़ अकबर के हाथों से फिसल गया । महाराणा प्रताप सिंह के डर से ही अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर गया और तब तक वापस नहीं लौटा जब तक की महाराणा के स्वर्ग सिधारने का समाचार नहीं मिला ।
उसके बाद महाराणा प्रताप अपने राज्य की उन्नति में जुट गए, परंतु दुर्भाग्य से 19 जनवरी 1597 को अपनी नई राजधानी चावंड में उनकी मृत्यु हो गई ।
उपसंहार
महाराणा प्रताप के स्वर्गवास के समय अकबर लाहौर में था, जब उसे सूचना मिली कि महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई है । अकबर की उस समय की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छंद में जो विवरण लिखा वो कुछ इस प्रकार है -:
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी !
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी !!
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली !
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली !!
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी !
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी !!
अर्थात -: हे गेहलोत राणा प्रताप सिंह तेरी मृत्यु पर शाह यानी सम्राट ने दांतों के बीच जीभ अपनी दबाई और निःश्वास के साथ आंसू टपकाए । क्योंकि तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया । तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकाया नहीं, हालांकि तू अपना आडा यानि यश या राज्य तो गंवा गया लेकिन फिर भी तू अपने राज्य के धुरे को बांए कंधे से ही चलाता रहा । तेरी रानियां कभी नवरोजों में नहीं गईं और ना ही तू खुद आसतों यानि बादशाही डेरों में गया । तू कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़ा रहा और तेरा रौब दुनिया पर निरंतर बना रहा । इसलिए मैं कहता हूँ कि तू सब तरह से जीत गया और बादशाह हार गया ।
महाराणा प्रताप को उनके स्वाभिमान, अदम्य साहस, जिजीविषा और कभी हार न मानने वाले जज्बे की वजह से भारतीय इतिहास में सम्मानपूर्वक देखा और पढ़ा जाता है । आज भी महाराणा प्रताप का जीवन चरित्र समस्त भारतीयों के लिए गर्व का विषय है ।
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